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इतिहास

ऐतिहासिक दृष्टि से जनपद सुलतानपुर का अतीत अत्यंत गौरवशाली और महिमामंडित रहा है । पुरातात्विक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा औध्योगिक दृष्टि से सुलतानपुर का अपना विशिष्ट स्थान है । महर्षि वाल्मीकि,दुर्वासा वशिष्ठ आदि ऋषि मुनियों की तपोस्थली का गौरव इसी जिले को प्राप्त है ।परिवर्तन के शाश्वत नियम के अनेक झंझावातों के बावजूद इसका अस्तित्व अक्षुण्य् रहा है ।
सन १९०३ में प्रकाशित सुलतानपुर जिला गजेटिएर ने इतिहास और जिले की उत्पत्ति पर कुछ प्रकाश डाला है। यह देखा गया है कि अतीत मे विभिन्न कुलों के राजपूत परिवारों का स्वामित्व अधिकांश भूमि पर था|इनके पास कुल भूमि क्षेत्र का 76.16 प्रतिशत था। उनमें से राजाओं का जिले के एक चौथाई हिस्से पर अधीकार था साथ-साथ उनके रिश्तेदारों, बचगोटीस और रजवाड़ों का क्रमश: 11.4 और 3.4 प्रतिशत पर अधिकार था। राजघराने लगभग पूरे अल्देमऊ के मालिक थे। उनका मुख्य दियरा का राजा था। बचगोटीस का मुखिया कुरवार का राजा था जबकि समरथपुर के तालुकदार परिवार की एक और शाखा का प्रतिनिधित्व करते थे। राजाओ के प्रमुख प्रतापपुर के तालुकदार थे। राज परिवार का एक अन्य सदस्य हसनपुर का राजा था। उनके साथ सहयोगी मनियारपुर और गंगेव के परिवार थे और उनके बीच उनके पास केंद्रीय क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा था। बचगोटीस और उनके रिश्तेदारों के साथ में बंधालगोटी आते हैं, जिनके पास लगभग पूरे अमेठी परगना का स्वामित्व था। उनका मुख्य अमेठी का राजा था, जबकि तालुकदार शाहगढ़ एक ही वंश के थे। जिले में बड़ी संपत्ति वाले राजपूत भाले सुल्तान थे, जिनका स्वामित्व 4.72 प्रतिशत था, कन्हपुरिया 4.7 प्रतिशत था, और बैस 2.8 प्रतिशत था। भाले सुल्तानों में से आधे हिंदू और आधे मुसलमान थे। वे इसौली, मुसाफिरखाना और जगदीशपुर के परगना में जिले के उत्तर पश्चिमी कोने में रहते थे। कन्हपुरिया मुख्य रूप से परगना गौरा जामो तक ही सीमित थे, जिनमें से लगभग सभी संबंधी थे। बैस छोटे समूहों में बिखरे हुए थे।
इस भूमि के अधिपतियों की एक और महत्वपूर्ण शाखा राज साह का घराना था। राज साह के तीन बेटे, ईश्री सिंह, चक्रसेन सिंह और रुप चंद थे। ईश्री सिंह से नौ पीढ़ियों के बाद बिजय चंद आए, जिनके तीन बेटे थे। हरकरन देव, जीत राय और जिव नारायन। हरकरन देव नानेमाउ तालुकदार के पूर्वज थे, जीत राय के वंशज मेओपुर दहला, मेओपुर धौरुआ और भदैया के मालिक थे, और जिव नारायन के उत्तराधिकारी दियरा के राजा थे।जिव नारायन के चौथे वंशज ने गोमती में राजाओं के छः उपनिवेशों में से पहले का नेतृत्व किया और नदी के तट पर दियरा में खुद को स्थापित किया। यह घराना सुलतानपुर के बचगोटीस की मुख्य शाखाओं में से एक बन गया।
उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में बाबू माधो सिंह, जिव नारायन के वंशज में ग्यारहवें स्थान पर, जिस संपत्ति के शासक थे उसमें 101 गांव शामिल थे। बाबू माधो सिंह जिन्हें सफल राजा के रूप में याद किया जाता है और जिन्होंने अपनी संपत्ति का सफल प्रबंधन किया, की मृत्यु 1823 में हुई थी। उनकी विधवा ठकुराईन दारियाव कुंवर, एक सबसे उल्लेखनीय महिला थी जिन्होंने कष्ट और उथलपुथल के वाबजूद न केवल बहादुरी से अपना खुद का प्रबंध किया अपितु उन्होंने अपने पति की तुलना में अपने जीवनकाल में और भी सम्पति को जोड़ा था। उत्तराधिकार की सीधी रेखा ठकुराईन के पति बाबू माधो सिंह की मौत के साथ खत्म हो गई थी। अगला पुरुष संपार्श्विक उत्तराधिकारी बाबू रुस्तम साह था, जिसे ठकुराईन नापसंद करती थी। बाबू रुस्तम साह उस समय के नाज़ीम महाराजा मान सिंह की सेवा में थे और ठकुराईन को पकड़ने में उनकी मदद की और उनके पक्ष में ठकुराईन को एक समझौता लिखना पड़ा। ये स्वाभिमानी महिला इस बात से काफी दुखी हुई और कुछ महीनों उपरांत उनकी मृत्यु हो गई। रुस्तम साह को नाजिम द्वारा संपत्ति का अधिकार दिया गया था। रुस्तम साह को बाद में पता चला कि नाजिम की सहायत किये जाने में उनके इरादे ठीक नहीं थे। एक युद्ध के उपरांत रुस्तम नाजिम को मारने वाला था लेकिन एक पंडित की सलाह पर कि समय शुभ नहीं है रुस्तम ने नाजिम को छोड़ दिया। बाद में रुस्तम साह ने ब्रिटिश सीमा पर शरण मांगी और उन्हें दियरा का तालुकदार बनाया गया जिसमें 336 गांव शामिल थे। रुस्तम साह ने अंग्रेजों से विद्रोह के दौरान उनको उत्कृष्ट सेवा प्रदान की थी । 1877 में उनका निधन हो गया और उनके भतीजे राजा रुद्र प्रताप सिंह ने उनका स्थान लिया।
अयोध्या और प्रयाग के मध्य गोमती नदी के दोनों ओर सई और तमसा नदियों के बीच कभी यह भूभाग बहुत दुर्गम था । गोमती के किनारे का यह क्षेत्र कुश-काश के लिए प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है, कुश-काश से बनने वाले बाध की प्रसिद्ध मंडी यही पर है । प्राचीन काल मे सुलतानपुर का नाम कुशभवनपुर था जो कालांतर मे बदलते बदलते सुलतानपुर हो गया । मोहम्म्द गोरी के आक्रमण के पूर्व यह राजभरो के अधिपत्य मे था जिनके जनपद मे तीन राज्य इसौली, कुलपुर व दादर थे, आज भी उनके किलो मे भग्न अवशेष विद्यमान है, जो तत्कालीन गौरव व समृद्धि को मुखरित करते है । जनश्रुति के अनुसार कुडवार राज्य के पश्चिम मे स्थित आज का गढ़ा ग्राम, बौद्ध धर्म ग्रंथो मे वर्णित दस गणराज्यो मे एक था । यहा के राजा कलामबंशी क्षत्रिय थे । इसका प्राचीन नाम केशीपुत्र था जिसका अस्तित्व ईसा की तेरहवी शताब्दी तक कायम था।रुस्तम साह के सबसे छोटे भाई बरार सिंह को विद्रोह के दौरान प्रदान की जाने वाली सेवाओं के बदले बरौंसा और अल्देमाऊ के परगना में 20 गांवों और तीन पट्टियों की संपत्ति मिली। इस संपत्ति को दमोदरा या सुलतानपुर के नाम से जाना जाता था।
राष्ट्रीय चेतना के विकास मे सुलतानपुर का ऐतिहासिक योगदान रहा है । सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम मे क्रांतकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ फेकने मे जान की बाजी लगाकर अंग्रेज़ो से मोर्चा लिया । सन 1921 के किसान आंदोलन मे इस जनपद ने खुलकर भाग लिया और सन 1930 से 1942 तक एवं बाद के सभी आंदोलनो मे यहा के स्वतंत्रा सेनानियो ने जिस शौर्य एवं वीरता का परिचय दिया वो ऐतिहासिक है । किसान नेता बाबा राम चंद्र और बाबा राम लाल इस संदर्भ मे उल्लेखनीय है , जिनके त्याग का वर्णन प. जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा मे किया है ।